Tuesday, 19 March 2024

माता सीता का जन्म कैसे हुआ?

 


क्या आप जानते हैं माता सीता के जन्म की कहानी

रामायण में माता सीता और प्रभु श्री राम को विशेष रूप से पूजा जाता है। श्री राम जी के जन्म के बारे में सभी जानते हैं, लेकिन माता सीता का जन्म रहस्य है। आइए जानें उनके जन्म से जुड़ी कुछ बातें। 

Mata sita birth story in ramayana

रामायण को हिंदू धर्म का सबसे पवित्र ग्रंथ माना जाता है। इसके सभी पात्रों का अलग महत्व है। प्रभु श्री राम को हम भगवान के रूप में पूजते हैं और माता सीता को भी उनके साथ हमेशा पूजा जाता है। माता सीता प्रभु श्री राम की अर्धांगिनी थीं और महाराज जनक की पुत्री थीं।


उन्हें लक्ष्मी जी का अवतार भी माना जाता है और ऐसा कहा जाता है कि जब विष्णु जी के अवतार के रूप में भगवान श्री राम ने धरती पर अवतार लिया तब माता सीता ने लक्ष्मी के अवतार के रूप में जन्म लिया।


उनकी महिमा ऐसी है कि आज भी प्रभु श्री राम से पहले देवी सीता का नाम लिया जाता है। यदि हम माता सीता के जन्म की बात करें तो आज भी उनके जन्म को लेकर कई कथाएं प्रचलित हैं। सीता जी का जन्म एक रहस्य ही है। उनके जन्म से जुड़ी बातों का पता लगाने के लिए हमने ज्योतिर्विद पं रमेश भोजराज द्विवेदी जी से बात की। आइए जानें माता सीता के जन्म से जुड़े कुछ रहस्यों के बारे में।


धरती से प्रकट हुईं माता सीता

mata sita birth


पौराणिक कथाओं के अनुसार माता सीता भगवान जनक को जमीन के नीचे मिली थीं। महर्षि वाल्मीकि जी की रामायण के अनुसार राजा जनक के समय में एक बार मिथिला राज्य में अकाल पड़ गया। ऋषियों ने राजा जनक से यज्ञ का आयोजन करने के लिए कहा जिससे वर्षा ही और उनका कष्ट दूर हो।


यज्ञ की समाप्ति के अवसर पर राजा जनक अपने हाथों से हल लेकर खेत जोत रहे थे तभी उनके हल का नुकीला भाग जिसे सीत कहते हैं किसी कठोर चीज से टकराया और हल वहीं अटक गया।


जब उस स्थान खुदाई हुई तब एक कलश मिला जिसमें एक सुंदर कन्या थी। राजा जनक ने उस कन्या को कलश से बाहर निकाला और उसे अपनी पुत्री के रूप में स्वीकार किया। जनक की पत्नी उस समय निःसंतान थीं इसलिए बेटी को पाकर वो अत्यंत प्रसन्न हुईं।


चूंकि हल के उस हिस्से से टकराकर माता सीता मिलीं थीं जिसे सीत कहा जाता है, इसलिए ही उनका नाम सीता रखा गया। वहीं जनक पुत्री के रूप में उन्हें जानकी कहा गया।


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क्या रावण की बेटी थीं माता सीता?

sita story in ramayana


यदि माता सीता के जन्म की बात करें तो एक और प्रचलित कथा है जिस पर शायद ही यकीन हो। दरअसल रामायण के अनुसार रावण ने कहा था कि यदि उसके हृदय में अपनी पुत्री से विवाह की इच्छा उत्पन्न हो तो उसकी पुत्री ही उसकी मृत्यु का कारण बने।


इसी बात को सही साबित करने के लिए एक बार गृत्समद नाम के ऋषि देवी लक्ष्मी को पुत्री रूप में पाने के लिए हर दिन मंत्रोच्चार के साथ कुश के अग्र भाग से एक कलश में दूध की बूंदे डालते थे।


एक दिन जब ऋषि आश्रम में मौजूद नहीं थे तब रावण वहां आया और वहां मौजूद ऋषियों को मारकर उनका रक्त कलश में भर लिया। इस कलश को रावण ने अपने महल में छिपा दिया।


उस समय रावण की पत्नी मंदोदरीउस कलश को लेकर बहुत उत्सुक थी। एक दिन जब रावण महल में नहीं था तब मंदोदरी ने उस कलश को खोलकर देखा। मंदोदरी कलश को उठाकर उसमें रखा हुआ रक्त पी गईं जिससे वह गर्भवती हो गई।


मंदोदरी का यह भेद किसी को पता ना चले इसलिए वह लंका से बहुत दूर अपनी पुत्री को कलश में छुपाकर मिथिला भूमि में छोड़ आई। इस प्रकार सीता जी का जन्म हुआ और वो रावण की पुत्री होने के साथ उनकी मृत्यु का कारण भी बनीं।


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सीता जी के जन्म की अन्य कथा

sita birth story


देवी सीता के जन्म की तीसरी कथा वेदवती नाम की एक ब्राह्मण कन्या से संबंधित है जिसका उल्लेख ब्रह्मवैवर्त पुराण में मिलता है। इस कथा के के अनुसार एक समय वेदवती भगवान विष्णु को पति के रूप में पाने के लिए तपस्या कर रही थीं।


हिमालय पर भ्रमण करते हुए रावण की नजर वेदवती पर पड़ी और उसके मन में वेदवती से विवाह का विचार आया। वेदवती रावण से बचने के लिए उंचाई से कूद गईं और मृत्यु के समय वो रावण को श्राप दे गईं कि आगे के समय में वो पुनर्जन्म लेकर रावण की पुत्री बनेंगी और उसकी मृत्यु का कारण बनेंगी। माता सीता का जब जन्म हुआ तब अपनी मृत्यु के भय से रावण ने उसे धरती पर एक कलश में रखकर गाड़ दिया।


माता सीता का जन्म वास्तव में एक रहस्य ही है और उनके जन्म की सही कथा जो कुछ भी हो, लेकिन उन्हें श्री राम के साथ पूजा जाता है।


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Sunday, 4 June 2023

जगन्नाथ पुरी के रहस्य

 भगवान् कृष्ण ने जब देह छोड़ी तो उनका अंतिम संस्कार किया गया, उनका सारा शरीर तो पांच तत्त्व में मिल गया, लेकिन उनका हृदय बिलकुल सामान्य एक जिन्दा आदमी की तरह धड़क रहा था और वो बिलकुल सुरक्षित था , उनका हृदय आज तक सुरक्षित है, जो भगवान् जगन्नाथ की काठ की मूर्ति के अंदर रहता है और उसी तरह धड़कता है, ये बात बहुत कम लोगो को पता है!


महाप्रभु का महा रहस्य

सोने की झाड़ू से होती है सफाई....!


महाप्रभु जगन्नाथ(श्री कृष्ण) को कलियुग का भगवान भी कहते है.... पुरी (उड़ीसा) में जग्गनाथ स्वामी अपनी बहन सुभद्रा और भाई बलराम के साथ निवास करते है, मगर रहस्य ऐसे है कि आजतक कोई न जान पाया...!


हर 12 साल में महाप्रभु की मूर्ती को बदला जाता है,उस समय पूरे पुरी शहर में ब्लैकआउट किया जाता है, यानी पूरे शहर की लाइट बंद की जाती है,लाइट बंद होने के बाद मंदिर परिसर को crpf की सेना चारो तरफ से घेर लेती है,उस समय कोई भी मंदिर में नही जा सकता...!


मंदिर के अंदर घना अंधेरा रहता है...पुजारी की आँखों मे पट्टी बंधी होती है...पुजारी के हाथ मे दस्ताने होते है..वो पुरानी मूर्ती से "ब्रह्म पदार्थ" निकालता है और नई मूर्ती में डाल देता है...ये ब्रह्म पदार्थ क्या है आजतक किसी को नही पता...इसे आजतक किसी ने नही देखा. ..हज़ारो सालो से ये एक मूर्ती से दूसरी मूर्ती में ट्रांसफर किया जा रहा है....!


ये एक अलौकिक पदार्थ है जिसको छूने मात्र से किसी इंसान के जिस्म के चिथड़े उड़ जाए... इस ब्रह्म पदार्थ का संबंध भगवान श्री कृष्ण से है...मगर ये क्या है ,कोई नही जानता,भगवान जगन्नाथ और अन्य प्रतिमाएं उसी साल बदली जाती हैं, जब साल में आसाढ़ के दो महीने आते हैं। 19 साल बाद यह अवसर आया है,वैसे कभी-कभी 14 साल में भी ऐसा होता है, इस मौके को नव-कलेवर कहते हैं....!


मगर आजतक कोई भी पुजारी ये नही बता पाया की महाप्रभु जगन्नाथ की मूर्ती में आखिर ऐसा क्या है ??? 


कुछ पुजारियों का कहना है कि जब हमने उसे हाथ में लिया तो खरगोश जैसा उछल रहा था...आंखों में पट्टी थी...हाथ मे दस्ताने थे तो हम सिर्फ महसूस कर पाए...!


आज भी हर साल जगन्नाथ यात्रा के उपलक्ष्य में सोने की झाड़ू से पुरी के राजा खुद झाड़ू लगाने आते है...!


भगवान जगन्नाथ मंदिर के सिंहद्वार से पहला कदम अंदर रखते ही समुद्र की लहरों की आवाज अंदर सुनाई नहीं देती, जबकि आश्चर्य में डाल देने वाली बात यह है कि जैसे ही आप मंदिर से एक कदम बाहर रखेंगे, वैसे ही समुद्र की आवाज सुनाई देंगी...!


आपने ज्यादातर मंदिरों के शिखर पर पक्षी बैठे-उड़ते देखे होंगे, लेकिन जगन्नाथ मंदिर के ऊपर से कोई पक्षी नहीं गुजरता,झंडा हमेशा हवा की उल्टी दिशामे लहराता है, दिन में किसी भी समय भगवान जगन्नाथ मंदिर के मुख्य शिखर की परछाई नहीं बनती!


भगवान जगन्नाथ मंदिर के 45 मंजिला शिखर पर स्थित झंडे को रोज बदला जाता है, ऐसी मान्यता है कि अगर एक दिन भी झंडा नहीं बदला गया तो मंदिर 18 सालों के लिए बंद हो जाएगा!


इसी तरह भगवान जगन्नाथ मंदिर के शिखर पर एक सुदर्शन चक्र भी है, जो हर दिशा से देखने पर आपके मुंह आपकी तरफ दीखता है!


भगवान जगन्नाथ मंदिर की रसोई में प्रसाद पकाने के लिए मिट्टी के 7 बर्तन एक-दूसरे के ऊपर रखे जाते हैं, जिसे लकड़ी की आग से ही पकाया जाता है, इस दौरान सबसे ऊपर रखे बर्तन का पकवान पहले पकता है।


भगवान जगन्नाथ मंदिर में हर दिन बनने वाला प्रसाद भक्तों के लिए कभी कम नहीं पड़ता, लेकिन हैरान करने वाली बात ये है कि जैसे ही मंदिर के पट बंद होते हैं वैसे ही प्रसाद भी खत्म हो जाता है और भी कितनी ही आश्चर्यजनक चीजें हैं, हमारे सनातन धर्म की।


जय हो सनातन धर्म की 🙏


जय गोविंदा, श्री जगन्नाथ जी की जय

Monday, 29 May 2023

🙏श्री गुरुदेव दत्तात्रयांचे सोळा अवतार🙏

 [25/05, 04:41] Sureshgaikwad: 🙏🕉️🙏🕉️🙏🕉️🙏🕉️🙏🕉️🙏🕉️🙏🕉️🙏🕉️🙏


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🙏श्री गुरुदेव दत्तात्रयांचे सोळा अवतार🙏

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१) योगिराज :-

ब्रम्हदेवाचे मानसपुत्र 'अत्रि' हे पुत्र प्राप्तीसाठी पत्निसह हिमालयात कठोर तपश्चर्या करीत होते. त्यांच्या तपश्चर्येने प्रसन्न होऊन साक्षात भगवान कार्तिक शुध्द १५ स प्रकट झाले. त्यांचे रुप स्फटिकासारखे ज्योतिर्मय होते. दत्तात्रेयांचा हा अवतार 'योगिराज' म्हणून प्रसिद्ध आहे. त्यांनी योगमार्गाचा पुरस्कार करुन लोकांना सुखी केले. म्हणून वरील नाव पडले. हा अवतार एकमुखी चतुर्भुज व प्रत्यक्ष विष्णूप्रमाणेच होता.


२) अत्रिवरद :-

अत्रिऋषीनी ऋक्ष पर्वतावरील पर्वतावरील परमतीर्थावर १०० वर्षे तप केले. तेव्हा त्यांना वर देण्याकरता 'अत्रिवरद' या नावाने हा योगिराज अवतरला. ब्रम्हा, विष्णू व महेश हे तिन्ही देव या तपाच्या वेळी अत्रिपुढे प्रकट झाले. आपण एकाचेच ध्यान करतो आहोत. मग हे तिघेजण कसे प्रकट झाले याचे आश्चर्य अत्रीना वाटले. तेव्हा ते म्हणाले,"तू ज्या एकाचे ध्यान करीत आहेस, तोच आम्हां तिघात आहे.' या अत्रिवरदाचे रुप तप्त सुवर्णकांन्तीप्रमाणे तेजस्वी, हसतमुख व षङभुज होते. (जन्म :-कार्तिक कृष्ण प्रतिपदा)


३) दत्तात्रेय :-

अत्रिवरदाने अत्रिऋषीना वर मागण्यास सांगितले. तेव्हा तुमच्यासारखाच पुत्र असावा असा वर अत्रिंनी मागितला. त्यावर 'तथास्तु' म्हणून बालरुपातील आपले स्वरूप त्यांनी प्रकट केले. ते दिगंबर रुप मदनासारखे सुंदर व नीलमण्यासारखे तेजस्वी होते. मुख चंद्राप्रमाणे व हात चार होते. हाच दत्तात्रेयांचा 'दत्तात्रेय' नामक तिसरा अवतार. (जन्म :-कार्तिक कृष्ण २)


४) कालाग्रिशमन :-

यानंतर आपणांस औरस पुत्र असावा म्हणून अत्रि ऋषी पुन्हा तप करु लागले. या उग्र तपाने त्यांच्या शरिरात कालाग्नी प्रकट झाला व त्याचा दाह होऊ लागला. तेव्हा याचे शमन करण्यासाठी भगवान शीतल रुप घेऊन प्रकट झाले. म्हणूनच यास 'कालाग्निशमन' हे नाव पडले. (जन्म :- मार्गशीर्ष शुद्ध १५)


५) योगीजनवल्लभ :-

या कालाग्निशमनाच्या दर्शनास देव, ऋषि, गंधर्व, यक्ष व किन्नर जमा झाले. तेव्हा दत्तात्रेयानी आपल्या बालरुपाचा त्याग करुन योगीजनांना प्रिय असे रुप धारण केले. हे अवतार 'योगिजनवल्लभ' या नावाने प्रसिद्ध आहे. (जन्म :-मार्गशीर्ष शुद्ध १५)


६) लिलाविश्वंभर :-

दत्तात्रेयांचा सहावा अवतार 'लिलाविश्वंभर' ज्यावेळी लोक अवर्षणामुळे अन्नान्न दशेस लागले होते तेव्हा दत्तात्रेयांनी लोकांचे कल्याण करण्यासाठी हा अवतार घेतला. (जन्म :-पौष शुद्ध १५)


७) सिद्धराज :-

भ्रमंतीत एकदा दत्तात्रेय बद्रिकावनात गेले. तेथे त्यांना अनेक सिद्ध दिसले. दत्तात्रेयांनी कुमार रुप धारण केले आणि अनेक चमत्कार करुन सिध्दांचे गर्वहरण केले, व त्या सर्वांना योगदीक्षा दिली. हा दत्तात्रेयांचा 'सिध्दराज' नावाचा सातवा अवतार. (जन्म :-माघ शुद्ध १५)


८) ज्ञानसागर :-

सिध्दीला कामनेची जोड नसावी हे पटवण्यासाठी दत्तात्रेयांनी रुपातीत, गुणातीत, ज्ञानयोगमुक्त असे सहजस्थितीतील 'ज्ञानसागर' नावाचे रुप धारण केले. (जन्म :-फाल्गुन शुद्ध १०)


९) विश्वंभरावधूत:-

पुढे आणखी एकदा सिध्दांना बोध देण्यासाठी दत्तात्रेयांनी 'विश्वंभरावधूत' या नावाचा नववा अवतार घेतला व योगीजनांना बीजाक्षर मंत्रांचा (द्रां) उपदेश केला. (जन्म :-चैत्र शुद्ध १५)


१०) मायामुक्तावधूत:-

भक्तांच्या अंतःकरणातील प्रेम व श्रध्दा दृढ करण्यासाठी दत्तात्रेयांनी 'मायामुक्तावधूत' या नावाचा दहावा अवतार घेतला. (जन्म :-वैशाख शुद्ध १४)


११) मायायुक्तावधूत :-

दत्तात्रेयांच्या अकराव्या अवताराचे नाव 'मायायुक्तावधूत' असे असून याचे रुप सावळे व सुंदर होते. मांडीवर एक सुंदर स्त्री घेऊन मद्य व मांस यांचे भक्षण सुरु होते. ही योगमाया होती. (जन्म :-जेष्ट शुद्ध १३)


१२) आदिगुरु :-

दत्तात्रेयांचा बारावा अवतार आदिगुरु या नावाने प्रसिद्ध आहे. मदालसेचा पुत्र 'अलर्क' यास योगाचा व तत्वज्ञानाचा उपदेश करण्यासाठी दत्तात्रेयांनी हा अवतार धारण केला. (जन्म :-आषाढ शुद्ध १५)


१३) शिवरुप :-

एकदा काळ्या आवळीच्या वृक्षाखाली दत्तात्रेय प्रगट झाले. हा दत्तात्रेयांचा 'शिवरुप' नावाचा तेरावा अवतार. (जन्म :-श्रावण शुद्ध ८)


१४) देवदेवेश्वर :-

दत्तात्रेयांचा 'देवदेवेश्वर' नावाचा चौदावा अवतार आहे. (जन्म :-भाद्रपद शुद्ध १४)


१५) दिगंबर :-

दत्तात्रेयांचा हा पंधरावा अवतार 'दिगंबर' या नावाने प्रसिद्ध असून यदुराजास श्री दत्त दिगंबर भेटले व त्यांनी आपल्या २४ गुरुंपासून काय काय ज्ञान घेतले याचा त्याला बोध केला. (जन्म :-आश्विन शुद्ध १५)


१६) कमललोचन :-

'कमललोचन' नावाने सोळाव्या अवतारात दत्तात्रेय प्रकट झाले....(जन्म :-कार्तिक शुद्ध १५)


ॐ योगिराजाय नमः ।

ॐ अत्रिवरदाय नमः ।

ॐ दत्तात्रेयाय नमः ।

ॐ कालाग्निशमनाय नमः ।

ॐ योगिजन वल्लभाय नमः ।

ॐ लीलाविश्वंभराय नमः ।

ॐ सिध्दराजाय नमः।

ॐ ज्ञानसागराय नमः ।

ॐ विश्वंभरावधूताय नमः ।

ॐ मायामुक्तावधूताय नमः ।

ॐ मायायुक्तावधूताय नमः ।

ॐ आदिगुरु: नमः ।

ॐ शिवरुपाय नमः ।

ॐ देवदेवेश्वराय नमः ।

ॐ दिगंबरावधूताय नमः ।

ॐ कमललोचनाय नमः ।


वास्तविक दत्तात्रयांचे कार्यपरत्वे प्रत्येक वेळी होणारा अविष्कार हा अवतारच मानला जातो.

या दृष्टीने स्वयंभू मन्वतरापासून तो आत्तापर्यत भक्त्तजनांच्या कल्याणाकरता दत्तात्रेयांचे जे विविध अवतार झाले त्यात १६ अवतारांना प्राधान्य देण्यात येते.

दत्तात्रयांचे हे अवतार निरनिराळ्या महिन्यात व निरनिराळ्या मुहुर्तावर झालेले असून त्यांची स्वरुपेही भिन्न भिन्न अशी वर्णिलेली आहेत.


◆ अवधूत चिंतन श्री गुरुदेव दत्त ◆

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Saturday, 13 May 2023

आजचे पंचांग

 

आजचे पंचांग: पंचांगम

शनिवार, मे 13, 2023 पंचांग New Delhi, India साठी

आजचे पंचांग

तिथिअष्टमी - 06:52:49 पर्यंत, नवमी - 28:45:01 पर्यंत
नक्षत्रधनिष्ठा - 11:35:42 पर्यंत
करणकौलव - 06:52:49 पर्यंत, तैतुल - 17:47:44 पर्यंत
पक्षकृष्ण
योगब्रह्म - 09:21:55 पर्यंत
वारशनिवार

सुर्य आणि चंद्र गणना

सूर्योदय05:31:52
सूर्यास्त19:03:20
चन्द्र राशिकुंभ
चंद्रोदय26:11:59
चंद्रास्त12:41:59
ऋतुग्रीष्म

हिंदु महिना आणि वर्ष

शाका संवत1945  शोभकृत
विक्रम संवत2080
काळी सम्वत5124
दिन काळ13:31:28
महिना अमांतवैशाख
महिना पूर्णिमांतज्येष्ठ

अशुभ समय

दुष्टमहूर्त05:31:52 पासुन 06:25:57 पर्यंत, 06:25:57 पासुन 07:20:03 पर्यंत
कुलिक06:25:57 पासुन 07:20:03 पर्यंत
कंटक11:50:33 पासुन 12:44:39 पर्यंत
राहु काळ08:54:44 पासुन 10:36:10 पर्यंत
काळवेला/अर्द्धयाम13:38:45 पासुन 14:32:51 पर्यंत
यमघंट15:26:57 पासुन 16:21:03 पर्यंत
यमगंड13:59:02 पासुन 15:40:28 पर्यंत
गुलिक काळ05:31:52 पासुन 07:13:18 पर्यंत

शुभ समय

अभिजीत11:50:33 पासुन 12:44:39 पर्यंत

दिशा शूळ

दिशा शूळपूर्व

चंद्रबलं आणि ताराबलं

ताराबल
भरणी, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, आश्लेषा, पूर्व फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, ज्येष्ठा, पूर्वाषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिष, पूर्वाभाद्रपद, रेवती
चंद्रबल
मेष, वृषभ, सिंह, कन्या, धनु, कुंभ

Thursday, 15 December 2022

आई तुळजाभवानी तुळजापूर संपूर्ण माहिती

 आई तुळजाभवानी तुळजापूर परिपूर्ण माहिती :



तुळजापूरची भवानीमाता हे अवघ्या महाराष्ट्राचे कुलदैवत. वर्षातुन

एकदा तरी तुळजापूरला जायचं आणि देवीचं दर्शन घ्यायचं ही प्रथा

कित्येक घरांमध्ये आजही नेमाने सुरू आहे.


मात्र तुळजापूरला जाऊन देवीचं दर्शन घेऊन येणाऱ्यांना

तुळजापूरमधील कित्येक प्रथा-परंपरांबद्दल माहिती नसते. 

म्हणूनच तुळजाभवानीच्या विविध प्रथा-परंपरांचा हा परिचय-


श्री श्रेत्र तुळजापूर हे आई तुळजाभवानीचे शक्ती पीठ! वर्षभर

भक्तांचा लोंढा तुळजापूरच्या दिशेने येत असतो. 

बाहेरून येणाऱ्या भक्तांना फक्त तुळजाभवानीचे मंदिर व परिसर

अशा काही ठरावीक गोष्टीच माहीत असतात. 

परंतु यापलीकडे जाऊन पाहिल्यास तुळजापूरकरांनी अनेक अशा

प्रथा- परंपरा जपलेल्या आहेत, 

त्या ऐकल्यानंतर नवीन माणसाला त्याविषयी नवल वाटल्याशिवाय

राहणार नाही.


साडेतीन शक्ती पीठांपैकी फक्त श्री तुळजाभवानीची मुर्ती तिच्या

जागेवरून सहजपणे काढता येते व तेवढय़ाच सहजपणे पुन्हा जागेवर

बसवता येते. 

त्यामुळे वर्षातुन तीन वेळा म्हणजे *भाद्रपद वद्य अष्टमी, आश्विन शुद्ध एकादशी* आणि *पौष शुद्ध प्रतिपदेला* देवीच्या मुर्तीला सिंहासनावरून काढुन पलंगावर झोपविले जाते. ज्याला देवीचा निद्राकाल म्हटले जाते. घोरनिद्रा, श्रमनिद्रा आणि सुखनिद्रा या नावाने चालणारा देवीचा निद्राकाल आजही तेवढय़ाच परंपरेने जोपासला जातो. 

अन्य कुठल्याही देवाला या प्रकारे सहजपणे उचलुन झोपविण्याची

पद्धत नाही.


श्री तुळजाभवानीचे पहाटेचे चरणतीर्थ, सकाळ व सायंकाळची महापुजा तसेच रात्रीची प्रक्षाळपुजा व इतर प्रत्यक्षात ज्या पुजा होत असतात, त्या वेळी देवीला प्रत्यक्ष स्पर्श करण्याचा अधिकार मात्र फक्त पानेरी मठाचे महंत,  १५३ पाळीकर भोपे पुजारी व १६ आने कदम पुजारी या घराण्यातील स्त्री-पुरुषांना असुन आजही ती परंपरा कायम आहे. 

यांच्या व्यतिरिक्त कुणीही असलातरी तो देवीच्या मुर्तीला स्पर्श करून

दर्शन घेऊ शकत नाही.

153 घराण्यातील (कुतवळ) घराण्याकडे दररोज दोन वेळेस चा नैवेद्य असतो व दुसरा नैवेद्य 16 आणे घराण्यातील (पाटील) घराण्याकडे नैवेद्य व देवीला पंचामृत चा मान आहे.



महाराष्ट्रातील साडेतीन शक्तिपीठांत तुळजाभवानीचे स्थान वरचे असुन

छत्रपती शिवरायांच्या भोसले घराण्यासह अनेकांची ती कुलदेवता

आहे. तुळजाभवानीची मुर्ती ही चल मुर्ती असुन काळ्याभोर गंडकी

पाषाणातुन बनविलेली मुर्ती साधारणपणे २x३.१५ फुट आकाराची

अष्टभूजा मुर्ती असुन मंदिरातील गाभाऱ्यात सिंहासनावरील एका

खाचेत बसविली जाते. मुर्तीला सिंहासनावरील खाचीत बसविण्याकरिता दीड फूट लांबीचा

क्रुस मुर्तीच्या खालच्या बाजुला असुन मुर्ती घट्ट बसावी म्हणुन मेण

बसविले जाते. याकरिता मुर्तीच्या खालच्या बाजुला ६’’ लांबीचा क्रूस

ठेवलेला आहे. त्यामुळे तुळजाभवानीची मुर्ती बाहेर काढुन प्रत्यक्ष विधीकरिता वापरली जाते. कदाचित ही अनोखी प्रथा असावी.


यात विशेष बाब म्हणजे मंदिर संस्थानकडे सर्व आर्थिक कारभार

असतानाही मेण पुरविण्याची जबाबदारी परंपरेने येथील पाणेरी

मठाच्या महंताकडे आहे.


साडेतीन शक्तिपीठांत तुळजापूर प्रथा-परंपरा, पुजाअर्चा याबाबतीतच

नव्हे तर देवीची मुर्ती अशा सर्वच बाबतीतली भिन्नता आहे. माहूरला

मुर्तीऐवजी तांदळा आहे तर वणीला एका मोठय़ा दगडावर देवी प्रतिमा

शिल्पांकन करण्यात आलेली आहे. 

मुर्तिशास्त्रानुसार कोल्हापूर आणि तुळजापूरच्या मुर्तीत काही

प्रमाणात साम्य असले तरी तुळजाभवानीची मुर्ती पूर्णत: चलमुर्ती

म्हणजे उत्सवाला बाहेर काढुन परत त्याच ठिकाणी बसविली जाते.

वीरांची देवता महाराष्ट्रातील साडेतीन शक्तिपीठांत तुळजापूरची श्री

तुळजाभवानी, कोल्हापूरची महालक्ष्मी, माहूरची रेणुका ही पूर्ण पीठं तर वणीची सप्तशृंगी हे अर्धपीठ म्हणुन परिचित आहे. पैकी तुळजाभवानी ही महिषमर्दिनी असल्याने तिला वीरांची देवता

म्हटलं जातं. त्यातही छत्रपती शिवाजी महाराजांच्या भोसले कुळाची

ती कुलदेवता असल्याने तुळजाभवानीला विशेष महत्त्व प्राप्त झालं. म्हणुनच कदाचित कोल्हापूर, माहूर आणि वणीच्या मंदिरात

तुळजाभवानीचं मंदिर आहे. 

त्याप्रमाणे तुळजाभवानी मंदिर परिसरात इतर तीन शक्तिपीठांचा

समावेश करण्यात आलेला नाही. महाराष्ट्रातील बहुतेकांची ती

कुलदेवता असल्याने वर्षभर भक्तांचा महापूर इथं सुरू असतो.



बालाघाट डोंगररांगातील प्राचीन काळातील यमुनाचल प्रदेशातील

चिंचपूर या ठिकाणी एका दरीत तुळजाभवानीचं ठाणं आहे.

तुळजाभवानी म्हणजे भक्तांच्या हाकेला त्वरित धावुन जाणारी ती

त्वरिता! त्वरिता वरूनच तुळजापूर नामाभिधान तयार झालं.

तुळजाभवानीचं शारदीय आणि शाकंभरी असे दोन नवरात्र महोत्सव

असुन या उत्सवापुर्वी देवाला मूळ स्थानावरून उचलुन शयनगृहात

झोपविलं जातं. याला देवीचा निद्राकाल म्हणतात. त्यानुसार भाद्रपद वद्य अष्टमी, आश्विन शुद्ध एकादशी आणि पौष शुद्ध प्रतिपदेला देवीजींचा निद्राकाल असुन त्याला अनुक्रमे घोरनिद्रा,श्रमनिद्राआणि सुखनिद्रा म्हटलं जातं. देवीच्या निद्राकालाची परंपरा शतकानुशतकं आजही कायमआहे. एवढंच नाही तर दसऱ्याचं सीमोल्लंघन साजरं करण्याकरिता देवीला एका विशिष्ट पालखीत बसवुन मिरविलं जातं.वर्षांतुन तीन वेळा तुळजाभवानीची मुर्ती निद्राकाळाकरिता एका विशिष्ट पलंगावर झोपविली जाते.


तर सीमोल्लंघना करिता मूळ मुर्ती पालखीत घालुन मिरविली जाते.

तुळजाभवानीची पूजाअर्चा करण्याचं काम वर्षभर स्थानिक पुजारी

करत असले तरी पालखी आणण्याचा मान नगरजवळील भिंगारच्या

भगत घराण्याकडे आहे. तर परंपरेने पालखीच्या पुढच्या खांद्यांचा मान बार्शी तालुक्यातील आगळगांव गोर माळय़ाच्या लोकांचा आहे. याचबरोबर देवीला ज्या पालखीतुन मिरविली जाते ती आणण्याचा मान नगरजवळील जनकोजी तेली (भगत) घराण्याकडे आहे. मध्ययुगीन कालखंडात भिंगारचा जनकोजी तेली तुळजापूरला येताना

आपल्या घराला आग लावुन निघाला. तुळजापूरला येत असताना रस्त्यातच त्याचं निधन झालं. त्याच्या भक्तीवर प्रसन्न होऊन देवीने दरवर्षी तेल्याच्या पालखीत बसुन सीमोल्लंघन खेळण्याकरिता जाण्याची प्रथा आजही कायम आहे. जनकोजीची अकरावी पिढी ही सेवा अविरतपणे बजावते. जनकोजी तेल्याच्या घराण्याचा मान म्हणुन पालखी तर आहेच, शिवाय देवीला सीमोल्लंघनाकरिता सिंहासनावरून हलविण्यापुर्वी तेल्याचे वंशज आपल्या करंगळीच्या रक्ताचा टिळा देवीच्या चरणाला लावण्याची प्रथा होती.

तुळजाभवानीची पालखी आणण्याचा मान भिंगारला असला तरी

प्रत्यक्षात पालखी तयार करण्याचा सन्मान मात्र राहुरीकरांना लाभतो.

पालखी तयार करताना सर्व समाजातील लोकांना त्यात सामावुन

घेतलेले आहे. पालखीचे सुतारकाम, लोहारकाम आणि रंगरंगोटीचे

काम राहुरी येथे पूर्ण केले जाते.  निद्राकालावधीत देवी ज्या पलंगावर

झोपते तो पलंग अहमदनगरमधील पलंगे नावाच्या तेली घराण्याकडुन दिला जातो. तर पलंग तयार करण्याचं काम आंबेगाव-घोडेगावमधील ठाकूर घराणे पार पाडते. दसऱ्यापूर्वी एक महिना अगोदर हा पलंग धुवुन अहमदनगर, सोलापूर जिल्ह्यातुन मिरवत तुळजापूरला येत असतो. यातही विशेष बाब म्हणजे तुळजाभवानीचा पलंग जुन्नरला गेल्यानंतर शिवनेरी किल्ल्यासमोर विश्रांतीसाठी ठेवला जातो.


छत्रपती शिवरायांच्या भक्तीत तुळजाभवानीचा अग्रक्रम आहे. त्याचा

हा योगायोगच. कुठल्याही मंदिरामध्ये पलंग आणि पालखी या वस्तू

पवित्र असल्याने त्याचं जतन करून ठेवलं जातं. याउलट तुळजाभवानी मंदिरातील पलंग आणि पालखी एकाच वेळी वापरून त्या होमात टाकुन नष्ट केल्या जातात. हे वेगळेपण आहे.


देवीच्या शिरावर मुकुट बसविण्यापूर्वी देवीच्या मस्तकी पानाची चुंबळ

करावी लागते. ते पान पुरविण्याची जबाबदारी एका तांबोळी नामक मुस्लिम घराची आहे. हे तांबोळी घराणे नवरात्रीत आपल्या घरी परंपरेने

घटस्थापनासुद्धा करते. त्यानुसार मंदिरातील अनेक कामे परंपरेने

एकाच घराण्याकडे अखंडपणे चालत आलेली आहेत. अल्पशा मोबदल्यात ही मंडळी देवीची सेवा म्हणुन दिवसरात्र राबतात. त्यामध्ये जाधव घराणे नगारा वाजविण्याचे काम करते. कदम घराण्यातील घरे घंटी वाजवितात. पलंगे देवीच्या पलंगाची सेवा करतात, न्हावी समाजाकडे सनई-चौघडा वाजविण्याचे काम आहे.

याप्रमाणे हरेक जाती-धर्माला इथं परंपरेनं सेवा बजाविण्याचा अधिकार आहे. लाखोंचे दान देणारी तुळजाभवानी पहिला नैवेद्य

भाजीभाकरीचा पसंत करते. तो उपरकर घराण्याकडुन येतो. 

देवीची प्रक्षाळ, सिंहासन यांसारख्या पूजेदरम्यान हाताखाली मदत

करण्याचे काम पवेकर करतात. भक्ताने सिंहासनपुजा केल्यानंतर

देवीजींच्या अंगावरील चिन्हे दाखविण्याचे काम हवालदार करायचा. सकाळ, दुपार आणि सायंकाळ अशा तीन वेळा दुधखिरीचा नैवेद्य हा कोल्हापूर संस्थानच्या वतीने दिला जातो. त्यासोबत पानाचा एक

विडाही दिला जातो.तुळजाभवानीच्या सेवेत खंड पडू नये म्हणुन अनेक सेवेकरी रात्रंदिवस झटत असतात. त्यातही एक विशेष सेवा म्हणजे तुळजाभवानीला उन्हाळय़ात उकाडा लागू नये म्हणुन पलंगे सलग तीन महिने देवीजींना वारा घालतात. सिंहासनारूढ देवीजींना वारा घालण्याकरिता पलंगे हातात पंखा घेऊन आपली चाकरी बजावत असतातच यासोबतच चैत्रशुद्ध बलिप्रतिपदेपासुन ते मृगाच्या

आगमनापर्यंत दररोज दुपारी देवीला नैवेद्यात सरबत दिले जाते. हे लिंबू सरबत पुरविण्याचे काम वंशपरंपरेने भिसे आणि दीक्षित घराण्याकडेच आहे. विना मोबदला ही मंडळी आपले काम चोखपणे करत असतात. मुळ नाव चिंचपूर, तुळजापूरचं मुळ नाव चिंचपूर. यमुनाचल प्रदेशातील चिंचपूर भागातील एका दरीत तुळजाभवानीचं

ठाणं असुन मंदिराची मूळ बांधणी किल्लेवजा असुन मंदिर हे

हेमाडपंथी शैलीतील आहे. प्राचीन काळी तुळजापुरात मोठय़ा

प्रमाणावर चिंचेची झाडं असल्याचा संदर्भ सापडत असला तरी आज

तेथे हे झाड दिसणं दुर्मीळ झालं आहे. निजाम राजवटीपासुन तुळजाभवानी मंदिराचा कारभार हाकण्याकरिता संस्थानची निर्मिती झाली असुन उस्मानाबाद जिल्ह्याचे कलेक्टर त्याचे प्रमुख आहेत. मंदिराचा कारभार सरकारी यंत्रणेकडे असला तरी प्रत्यक्ष देवीची पूजाअर्चा व जे देवीचा नवस-सायास पार पाडतात त्यांना १५३ पाळीकर भोपे पुजारी म्हणतात तर अन्य १६ कदम घराणी यांना भोपे पुजारी म्हणतात. त्यांच्यासोबत पानेरी मठाचे महंत देवीच्या सेवेकरिता अहोरात्र मंदिर परिसरातील आपल्या मठात राहतात. महंत आणि वरील दोन्ही प्रकारचे पुजारी यांच्यात मानापमानावरून

वरचेवर मतभेद वाढत गेल्याने हैद्राबाद संस्थानमधील धार्मिक विभागाने १९१९ साली ‘देऊळ-ए-कवायत’ नावाचा कायदावजा करार केला.

त्यानुसार संस्थानसह पुजारी आणि मानकऱ्यांनी कोणत्या प्रकारच्या

सेवा बजावाव्यात तसेच त्यांचे अधिकार आणि उत्पन्न स्पष्ट करण्यात

आले असल्याने आजही मंदिराचा कारभार ‘देऊळ-ए-कवायत’ नुसारच

चालविला जातो.


तुळजापुरातील पुजाऱ्यांचे वैशिष्टय़ म्हणजे आपल्याकडे येणाऱ्या

भक्ताची ते लेखी नोंद ठेवतात. 

त्यामुळे वंशपरंपरेने आपल्या कुलदेवतेचा पुजारी हा ठरलेला आहे. 

साहजिकच आपल्या वंशजांना इतिहास जाणुन घेण्याकरिता

पुजाऱ्यांचे बाड उपयोगी ठरते. 

देवीचे पुजारी हे आपल्याकडे येणाऱ्या भक्ताची राहण्याखाण्याची व्यवस्था स्वत:च्या घरीच करतात हे वेगळेपणआहे.

भक्ताला लाखोने देणारी देवी स्वत: मात्र पहिला नैवेद्य भाजी

भाकरीचा स्वीकारते. गेल्या अनेक दशकांपासुन उपरकर हा नैवेद्य

देतात. याप्रमाणे पवेकर, हवालदार, दिवटे, जाधव, लांडगे यांसारखे

अनेक सेवेकरी अखंडपणे सेवा बजावतात.

देवीच्या सेवेत तुळजापुरातील पानेरी, मळेकरी, दशावतार आणि भारतीबुवाचे मठ कार्यरत आहेत. 

शेकडो वर्षांपासुन या मठाचे मठाधिपती दिवसरात्र सेवा करतात.  

पहाटेपासुन रात्री उशिरापर्यंत या मठाधिपतींना देवीच्या सेवेत राहावे

लागते. 


दशावतार मठाची जागा देवी मंदिरापासुन हाकेच्या अंतरावर असली

तरी या मठाच्या महंतांना आश्विन अमावास्ये शिवाय वर्षभर कधीच

मंदिरात प्रवेश करण्याचा हक्क नाही. त्यामुळे हे महंत वर्षभर हा दिवस सोडुन कधीच पुर्वेकडे असणारा आपल्या मठाचा दरवाजा

ओलांडत नाहीत.


तुळजापुरात देवीच्या सेवेत सर्व जातीधर्माना स्थान आहे. देवीला

टोपासाठी लागणारी पानं पुरविणारे तांबोळी मुस्लीम असले तरी देवीची माळ, पोत, परडी तर पाळतातच शिवाय घटस्थापनाही करतात. देवीच्या नैवेद्यात मांसाहार, तर येथील काळभैरवाला नैवेद्यानंतर गांजाची चिलीम तोंडात दिली जाते. याशिवाय

अख्खे गावही अनेक परंपरा पाळते. त्यानुसार नवरात्रीत गादी पलंगाचा

त्याग करतात. चप्पल घालत नाहीत. इतरही अनेक प्रथा आहेत. त्यानुसार कुंभाराचे चाक, तेलाचा घाणा गावात चालवत नाहीत.



तुळजाभवानी म्हणजे शाक्त संप्रदायाशी निगडित असल्याने तिच्या

प्रथा परंपराही काही वेगळय़ाच असणार! त्यानुसार देवीच्या नावाने

गोंधळ घालणे आलेच. एका भक्ताच्या घराण्याची प्रथा तर अशी आहे की, चक्क बोंबलत जाऊन दर्शन घ्यावे लागते. एक दंतकथा अशी सांगितली जाते की मौजे रांजणी ता. घनसांगवी जि. जालना येथील तुकाराम नावाचा भक्त शेकडो वर्षांपूर्वी देवीच्या दर्शनासाठी आला असता रात्रीच्या समयी त्याला भूकंप झाल्याचा दृष्टांत होऊन भीतीने तो ओरडतच घराबाहेर पडला. त्याच्या आवाजाने सर्व जण घराबाहेर पडल्याने अनेकांचे प्राण वाचले. परंतु याच भक्ताला रस्त्यात काही जणांनी लुटले म्हणुन तो देवीला साकडे घालण्याकरिता माझे काय

चुकले म्हणत बोंब ठोकतच गेला. देवीला साकडे घालण्यासाठी बोंबलतच जाण्याची परंपरा निर्माण झाली. त्यानुसार दत्त जयंतीला

त्याचे वंशज तुळजापुरात प्रवेश केल्यानंतर देवीच्या गाभाऱ्यापर्यंत

चक्क बोंबलत जाऊन दर्शन घेतात. त्यामुळे या घराण्याला नाव पडले

बोंबले! विशेष म्हणजे देवीच्या भक्तीत गढुन गेलेल्या तुकारामाचा अंत

तुळजापुरात व्हावा हा पण योगायोगच. त्यामुळे शहरात या तुका

बोंबल्याची समाधीसुद्धा आहे. अशा अनेक चित्रविचित्र परंपरा

तुळजापूरवासीयांनी जपल्या आहेत.

देवीच्या परंपरेत काळभैरवाचा भेंडोळी उत्सवही महत्त्वाचा आहे. एका काठीला पलिते बांधुन ती पेटवुन निघालेली ती भव्य ज्वालायात्रा

पाहताना थरकाप उडतो. 

देवांचे रक्षण करणारा कालभैरव म्हणजे या परिसराचा कोतवालच.

त्याच्या अक्राळविक्राळ रूपाला अनुसरून त्याला रोजचा नैवेद्यही

मांसाहाराचा असतो.  शिवाय त्याच्या तोंडात गांजाची चिलीम पेटवुन दिली जाते. 

ही परंपरा आजही जोपासली जाते. 

काळभैरव रखवालदार आहे. तो वर्षांतुन एकदाअश्विन अमावस्येला

तुळजाभवानी परिसराची पाहणी करायला निघतो.  त्याचे फिरणे हे रात्रीचे असते. त्याला उजेड हवा म्हणुन हा भेंडोळी उत्सव आला असावा. 

भैरोबाच्या नावानं चांगभलं आणि तुळजाभवानीचा उदो उदो करत

तरुणांनी भेंडोळी अंगावर घेतलेली असतात.  ही भेंडोळी घेऊन ते अरुंद गल्लीबोळातुन जातात. पण या भेंडोळीमुळे त्यांना कधीही इजा झाल्याचे उदाहरण नाही.


काळभैरवाला काशीचा कोतवाल म्हटले जाते. त्याची ठाणी भारतात सर्वत्र असली तरी भेंडोळी उत्सव उत्तरेत काशी आणि दक्षिणेत तुळजापूर येथेच फक्त साजरा होतो.

मंदिरात आल्यावर देवीला पदस्पर्श करून ही भेंडोळी वेशी बाहेर जाऊन विझवली जातात. 


अश्विन अमावस्येला भेंडोळी बरोबरच महत्त्वाचा समारंभ म्हणजे दशावतार मठाचे महंत या दिवशी वाजतगाजत देवीच्या दर्शनासाठी येतात. या दिवशी देवीला पांढरी साडी नेसवण्याची प्रथा आहे. ही साडी हा दशावतार मठाचा आहेर असतो. ते वैराग्याचे प्रतीक समजले जाते. या दिवशी दशावतार मठाचे महंत आणि काळभैरवाचे पुजारी यांना पेहराव देऊन त्यांचा सत्कार केला जातो. त्यात त्यांना जो फेटा बांधला जातो, तो देवीच्या साडीचा असतो. काही प्रथापरंपरा अगदी समाजानेही जपल्या आहेत. अद्यापही तुळजापुरात तेल्याचा घाणा, कुंभाराचे चाक, कातडी कमावण्याचा उद्योग इथं चालविला जात नाही. 

हेच काय तर तुळजापुरात भिंतीवर पाल कधी चुकचुकत नाही अशी

या लोकांची श्रद्धा आहे.


श्री तुळजाभवानी ही महाराष्ट्राची कुलस्वामिनी त्यामुळे ज्याप्रमाणे

आई सर्वाना सामावुन घेते त्याप्रमाणे देवीच्या दरबारात गुढीपाडवा,

होळी, रंगपंचमी असे सर्वच सण साजरे होतात. एवढेच नव्हे तर वैष्णव पंथाचा गोपाळकालाही आषाढी एकादशीला इथं साजरा होतो. 

गुढीसोबतच सर्व राष्ट्रीय सणाला मंदिरावर राष्ट्रध्वजही फडकविण्याची

परंपरा इथं कायम आहे. 

या प्रमाण परंपरेला प्राचीन इतिहास आहे. 

बदलत्या जगात आजही त्याचे मनोभावे पालन केले जाते. 

तुळजाभवानीच्या दरबारातील प्रथापरंपरा अगदी निर्विघ्नपणे पुढे

चालु आहेत. 

म्हणुनच तिच्या दरबारात पाऊल ठेवताच लहानथोर एकच जयघोष

करतात.


*‘आईचा उदोऽऽ उदोऽऽ!’*


🙏🙏जय जगदंबा 🙏🙏

Wednesday, 7 December 2022

दत्त जयंती :- जन्म तिथी जन्म वेळ आणि जन्म कथा

Datta Jayanti : जन्मकथा गोड आहेच, पण त्यातून घेण्यासारखा बोध फार महत्त्वाचा आहे!

Datta Jayanti : काय आहे दत्त जन्माची वेळ, जन्मकथा आणि दत्त अवतार कार्यातून घेण्याचा बोध, जाणून घ्या.



दत्तजन्म कथा : अतिशय महान तपस्वी अत्री ऋषी यांची पत्नी अनुसूया अतिशय सद्गुणमंडित होती. तिच्या पतिव्रतेची चर्चा थेट इंद्रलोकात होऊ लागली. तत्कालीन व्यवस्थेनुसार ज्याचे पुण्य जास्त त्याला इंद्रपद मिळत असे. अनुसूयेच्या पतिव्रतेचे तेज पाहून इंद्रदेवाला भीती वाटू लागली. त्याने तिनही देवांकडे धाव घेतली आणि आपले इंद्रपद धोक्यात आहे असे सांगितले. 

योगायोगाने तिनही देव कैलासावर एकत्र जमले होते. इंद्रदेव तिथे पोहोचले आणि त्यांनी आपली व्यथा तिघांसमोर मांडली. तीनही देवांबरोबर त्यांच्या सुविद्य पत्नीदेखील तिथे उपस्थित होत्या. एका स्त्रीसमोर दुसऱ्या स्त्रिचे कौतुक कोणत्याही स्त्रिला सहन होत नाही. अनुसूयेचे कौतुक ऐकताच, तिघींनी कान टवकारले. कोण आहे ती, हे जाणून घेण्यासाठी नारदाला बोलावून घेतले. 

तीनही देवस्त्रियांची उत्सुकता पाहून नारद महर्षी अनुसूयेचे आणखीनच रसभरित वर्णन करू लागले. तिघींचे रागरंग बदलू लागले. एका क्षणाला त्यांनी नारदाला हटकले व म्हणाल्या, `पुरे झाले कौतुक. आम्हा तिघींपैकी कोणी स्त्री या विश्वात श्रेष्ठ असूच शकत नाही.' यावर नारद म्हणाले, `ठीक आहे, घ्या तिची परिक्षा!'

तिघी एकासूरात `घेणारच' असे म्हणाल्या आणि तिघींनी त्रिदेवांकडे कटाक्ष टाकला. तिघींनी फर्मान सोडले, `आता ताबडतोब जा आणि कोण अनुसूया आहे, तिची परीक्षा घ्या.' त्रिदेवांनी समजूत काढली, पण कोणी ऐकायला तयार होईना. बायकोचा हट्ट पुरवावा लागणार अशी चिन्हे दिसू लागल्यावर, भगवान विष्णूंनी ध्यान लावून पाहिले. अत्रि ऋषी आश्रमात नाहीत, हीच वेळ जाण्यासाठी योग्य आहे, अन्यथा कितीही वेशांतर करून गेलो, तरी ते आपल्याला निश्चित ओळखतील, हे विष्णूंना ठाऊक होते. त्रिदेव जाण्यासाठी निघाले, तोच त्यांच्या पत्नी म्हणाल्या, `साधी परीक्षा नाही, सत्वपरीक्षा घ्या!'

देवींना काय सुचवायचे आहे हे लक्षात घेऊन त्रिदेव अलख निरंजन म्हणत साधूंच्या वेषात अत्रि ऋषींच्या आश्रमाबाहेर आले. अतिथींचा आवाज ऐकताच अनुसूया जोंधळे घेऊन अन्नदान करायला बाहेर आली. त्या तेज:पूंज अतिथींना पाहून स्तिमीत झाली. ती दान देणार, तेवढ्यात विष्णूंनी तिला विवस्त्र होऊन अन्न द्यावे, अशी मागणी केली. 

एका पतिव्रतेकडे अशी मागणी करण्याचे धाडस कोणत्या साधूंमध्ये असावे? असा विचार करत अनुसूयेने अत्रि ऋषींचे स्मरण केले. तिला अतिथी धर्म चुकवायचा नव्हता, तसेच विवस्त्र होऊन पातिव्रत्यही भंग होऊ द्यायचे नव्हते. या समस्येचा मध्य काढताना अनुसूया मनातल्या मनात म्हणाली, अशी मागणी करणारे सामान्य साधू नाहीत. त्यांच्या इच्छापूर्तीसाठी मी विवस्त्र होईन, पण त्यांनीदेखील माझे बाळ झाले पाहिजे, कारण त्यांनी भिक्षा मागताना माझा उल्लेख माते असा केला होता.' अशा विचाराने तिने आपल्या पतीचरणांचे उदक घेऊन अतिथींवर शिंपडले आणि तिच्या तपसामर्थ्याने ती तिघेही बालके झाली. त्यांना पाहून अनुसूयेचा वात्सल्याने ऊर भरून आला. तिने शर्थ पूर्ण केली आणि बालकांचे पोट भरल्यावर पाळणा बांधून झोपवले. अत्रि ऋषी परत आल्यावर तिने सगळी हकीकत सांगितली.

स्वर्गलोकात तिनही देवस्त्रिया पतीची वाट पाहू लागल्या. नारद महर्षींनी सर्व वृत्त कथन केले. आपले पती आता मोठे झाल्यावर परत येणार हा विचारच त्यांना सहन झाला नाही. अनुसूयेच्या पतीव्रतेसमोर तिघी जणी नतमस्तक झाल्या. आपला अहंकार दूर ठेवून त्या अनुसूयेला शरण आल्या आणि आपला पती परत मागू लागल्या. अनुसूयेने पती चरणोदक शिंपडून बाळांना पूर्ववत केले परंतु तिचा पाळणा रिकामा झाला. तेव्हा, तिच्यावर प्रसन्न होऊन तीनही देवांनी अनुसूयेच्या उदरी जन्म घेणार असा आशीर्वाद दिला. त्यानुसार मार्गशीर्ष पौर्णिमेला सूर्यास्ताच्यावेळी (सायंकाळी ६.४०) दत्तात्रेयांचा जन्म झाला. ब्रह्मदेवांचा अंश चंद्र, विष्णूंचा अंश दत्तात्रेय आणि शंकराचा अंश दूर्वास अशी तिनही बालके अनुसूयेच्या आणि अत्रि ऋषींच्या छत्रछायेत वाढू लागली.

दत्तजन्म जन्मवेळ : म्हणून आजही मार्गशीर्ष पौर्णिमेला सायंकाळी ६.४० रोजी दत्त जन्म घोषित करतात आणि भजन, कथा, कीर्तन करून उत्सव साजरा करतात. 

दत्त कथेचा बोध : अनुसूया माता जशी असूयाशून्य होती, तसा आपण कोणाबद्दलही राग, मत्सर, द्वेष भाव न ठेवता सर्वांशी सद्भावनेने वागले तर आपल्या पोटी दत्त गुरूंसारखे वैराग्य येऊन प्रपंच आणि परमार्थाची व्यवस्थित घडी बसवता येईल

Saturday, 3 December 2022

CNG PUMP कैसे खोले

पेट्रोल और डीजल के लगातार बढ़ते दामों की वजह से सीएनजी गैस से चलने वाले वाहनों की मांग बढ़ रही रही है। वर्तमान समय में CNG पंप एक फायदेमंद व्यवसाय बन गया है। अगर आप भी CNG पंप खोलना चाहते हैं तो यह फायदे का सौदा हो सकता है। पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने कहा है कि भारत में साल 2030 तक 10,000 CNG स्टेशन खोले जाएंगे। इस बात से कई लोग CNG पंप की डीलरशिप लेने का मन बना रहे हैं। ऐसे लोगों को आज हम CNG पंप की डीलरशिप लेने की प्रोसेस के बारे में बता रहे हैं। 


CNG पंप कौन खोल सकता है?


CNG पंप खोलने वाला भारतीय नागरिक होना चाहिए और आवेदक की उम्र 21 से 55 वर्ष के बीच होनी चाहिए। आवेदक को कम से कम 10वीं तक शिक्षित भी होना जरूरी है। 


 


CNG पंप खोलने के लिए जमीन होनी चाहिए?


1.CNG पंप खोलने के लिए आपके पास जमीन होना जरूरी है। अगर जमीन खुद की नहीं है तो आपको जमीन मालिक से NOC यानी नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट लेना होगा। 


2. आप अपने परिवार के किसी सदस्‍य की जमीन को लेकर भी CNG पंप के लिए अप्‍लाई कर सकते हैं। हालांकि इसके लिए भी आपको एक NOC और एफिडेविट बनवाना होगा।


3. लीज पर ली गई जमीन के लिए लीज एग्रीमेंट होना अनिवार्य है। साथ ही रजिस्टर्ड सेल डीड भी होनी चाहिए। 

4. जमीन अगर कृषि भूमि में आती है तो आपको उसका कनवर्जन कराना होगा।


5. आपके पास जमीन के पूरे डॉक्‍युमेंट्स और नक्‍शा होना चाहिए।  


 


खर्च कितना आएगा ?

CNG पंप खोलने का खर्च जगह कंपनियों पर निर्भर करता है। सीएनजी स्टेशन खोलने पर करीब 30 से 50 लाख रुपए का खर्च आएगा। इसके लिए आवेदक के पास कम से कम 15000 से 16000 वर्ग फुट स्पेस चाहिए होगा।



आवेदन कैसे करना है?

कंपनियां अखबार और वेबसाइट पर विज्ञापन देतीं हैं कि उन्हें किस जगह पर CNG पंप खोलना है। अगर आपकी जमीन उसी जगह पर या उसके आसपास है तो आप अप्लाई कर सकते हैं। अप्‍लाई करने के लिए कंपनियों की वेबसाइट पर ऑप्‍शन मौजूद रहता है।

CNG पंप की डीलरशिप देने वाली कंपनियां

1.गैस अथॉरिटी ऑफ इंडिया (GAIL) 

2.हिंदुस्तान पेट्रोलियम कार्पोरेशन (HPCL) 

3.महानगर गैस लिमिटेड(MGL)

4.महानगर नेचुरल गैस लिमिटेड(MNGL)

5. महाराष्ट्र नेचुरल गैस लिमिटेड(MNGL)

6. गुजरात स्टेट पेट्रोलियम प्राइवेट लिमिटेड(GSP)


Thursday, 10 November 2022

लोणार सरोवर व राम मंदिर

 लोणार सरोवराच्या बाजूचे विस्मयकारी रामाचे मंदीर...




लोणार सरोवराच्या पाण्यापाशी जाताना उंचावरून एका पायवाटेने खाली उतरत यावं लागतं... हा रस्ता नागमोडी वळणाचा आणि जंगलातून जाणारा आहे...याचं पायवाटेवर जरासं आडवाटने बाजूला काही अंतर चालतं गेलं की डाव्या बाजूला थोडंसं उंचावर हे एक अदभूत आणि खास वैशिष्ट्यपूर्ण असे श्रीरामाचे मंदिर आहे...मोडतोड आणि अत्यंत दुर्लक्षित झालेलं हे मंदिर अजूनही त्याच्या पुराणकालीन वैभवशाली श्रीमंतीची साक्ष देत उभे आहे...


या मंदिराचे वैशिष्ट्य म्हणजे या मंदिरात फक्त श्रीरामाची मूर्ती आहे, सहसा श्रीराम यांची एकटी मूर्ती कधीही नसते... श्रीरामाच्या एका बाजूला बंधू लक्ष्मण आणि दुसऱ्या बाजूला पत्नी सीता उभे असतात...अजून खास म्हणजे श्रीराम यांची ही मूर्ती निशस्त्र अवस्थेत आहे आणि हे ही वैशिष्ट्यपूर्ण आहे...श्रीरामाच्या हातात कायम धनुष्यबाण दाखवले जाते जे या मूर्तीत नाही...


यामागे एक खास कारण आहे...श्रीराम वनवासात असताना येथे या सरोवराच्या बाजूला वास्तव्यास असताना त्यांचे वडील दशरथ यांचे निधन झाले... श्रीरामांनी आपल्या वडिलांचा दशक्रियाविधी येथून वीस किमी अंतरावर असलेल्या पैनगंगा नदीच्या काठी मेहकर येथे केला...तेथेच श्री बालाजी यांची खास मूर्ती आहे त्यावर मागच्या भागात लिहिले आहेच...


श्रीराम यांना आपल्या वडीलांचे पिंडदान करायचे होते आणि ते वनवासात असल्याने त्यासाठी अट अशी होती त्या विधीसाठी श्रीराम निशस्त्र असायला हवेत आणि त्यांच्याबरोबर कोणी स्वकीय असायला नको...हेच पिंडदान श्रीरामांनी या सरोवराच्या बाजूला केले आणि त्याचं ठिकाणी सध्याचे हे निशस्त्र श्रीरामाचे मंदिर आहे...


या मंदिरात एक अचंबित करणारी गोष्ट अशी या ठिकाणी तुम्ही गाभाऱ्यात मूर्तीच्या समोर उभे राहून हात जोडून नमस्कार करायला उभे राहिलात की तुम्हाला  श्रीरामांच्या मूर्तीच्या एका बाजुला लक्ष्मण आणि दुसऱ्या बाजूला सीता मातेचे दर्शन होते...हे खूपच आश्चर्यकारक आहे... त्यामागे एक खास कारण आहे...या मंदिरात सभामंडपात दगडी सुबक नक्षीकाम केलेले बारा खांब आहेत, जे एका विशिष्ट रचनेत मंदिरात बसवले गेले आहेत...चार मोठे खांब सभामंडपात मध्यभागी आणि चार छोटे खांब उजव्या बाजूला आणि चार डाव्या बाजूला...हे खांब अशा रितीने बसवले गेले आहेत की ज्यावेळी आपण मूर्ती समोर हात जोडून उभे असतो त्यावेळी प्रकाशाची किरणे विशिष्ट कोनातून परावर्तित होईन आपली स्वतःची सावली श्रीरामाच्या मूर्तीच्या बाजूला अशा प्रकारे पडते की आपल्याला त्या मूर्तीच्या एका बाजूला सीतामाता आणि दुसऱ्या बाजूला लक्ष्मण उभे आहेत हा भास निर्माण होतो...मी हे प्रत्यक्ष बघितल्यावर अंगावर रोमांच उभे राहिले...जरा विचार करा त्यावेळी आजच्या सारखे कॅलक्युलेटर , संगणक, दुर्बीण, होकायंत्र असे कोणतेही अद्ययावत साधन सामुग्री उपलब्ध नसताना हे त्यांनी कसे निर्माण केले असेल?...अहो एक दोन सेंटीमीटर जरी खांबांची लांबी, रुंदी, ठेवण बदलली तरी ही विस्मयकारी गोष्ट साकारणे केवळ अशक्य आहे...यावरून त्याकाळी विज्ञान किती प्रचंड ताकदीचे होते याची प्रचिती येते...


एवढंच नाही तर या मूर्तीच्या समोर उभे राहून तुम्ही आपले दोन्ही हात डोक्यावर सरळ उभे नेऊन डावीकडे उजवीकडे बाय बाय केल्यासारखे हलवले तर श्रीरामांच्या मस्तकाच्या वर मागच्या भिंतीवर या आपल्या हातांच्या सात सात सावल्या पंखा घालत असल्यासारख्या हलताना दिसतात...हे दोन्ही प्रकार मी स्वतः प्रत्यक्ष अनुभवल्यावर माझ्या अंगावर अक्षरशः काटा उभा राहिला... असे अजूनही खास वैशिष्ट्य या मंदिरात आढळले...


यावरून जरा विचार करा की आपले पूर्वज किती विद्वान आणि प्रचंड कलात्मक होते...त्यावेळेसची पाषाण शिल्पकला किती अफाट होती... आपण कल्पनाही करू शकत नाही इतकं हे भव्यदिव्य आहे,  पण काळाच्या ओघात अक्षरशः नेस्तनाबूत होत आहे...


अरे हो अजून एक खास बाब अशी या मंदिरात होकायंत्र काम करत नाही...तिथे मंदिरात विश्रांतीसाठी खाली जमिनीवर बसलो असताना होकायंत्र काढून वेगवेगळ्या दगडावर ठेऊन पाहिलं तर त्या होकायंत्राची सुई दक्षिण उत्तर दाखवत नाही...वेगवेगळ्या दगडावर होकायंत्र ठेवलं की ती सुई भरकटत जाते पण स्थिर दक्षिण उत्तर होत नाही...आहे की गमतीशीर?... अर्थात यामागे शास्त्रीय कारण आहे...


या मंदिराची सध्याची अवस्था पाहून मन विषण्ण झालं... इतकं मोठं वैभव आपल्याकडे आहे याचा खरोखरचं अभिमान वाटतो...



Wednesday, 19 October 2022

तुलसी की कथा

 🌺🌺🌺🌺​*तुलसी माता कौन थी?*🌺🌺🌺🌺


तुलसी(पौधा) पूर्व जन्म मे एक लड़की थी जिस का नाम वृंदा था, राक्षस कुल में उसका जन्म हुआ था बचपन से ही भगवान विष्णु की भक्त थी.बड़े ही प्रेम से भगवान की सेवा, पूजा किया करती थी.जब वह बड़ी हुई तो उनका विवाह राक्षस कुल में दानव राज जलंधर से हो गया। जलंधर समुद्र से उत्पन्न हुआ था.



वृंदा बड़ी ही पतिव्रता स्त्री थी सदा अपने पति की सेवा किया करती थी.


एक बार देवताओ और दानवों में युद्ध हुआ जब जलंधर युद्ध पर जाने लगे तो वृंदा ने कहा –


स्वामी आप युद्ध पर जा रहे है आप जब तक युद्ध में रहेगे में पूजा में बैठ कर आपकी जीत के लिये अनुष्ठान करुगी,और जब तक आप वापस नहीं आ जाते, मैं अपना संकल्प नही छोडूगी। जलंधर तो युद्ध में चले गये,और वृंदा व्रत का संकल्प लेकर पूजा में बैठ गयी, उनके व्रत के प्रभाव से देवता भी जलंधर को ना जीत सके, सारे देवता जब हारने लगे तो विष्णु जी के पास गये।

सबने भगवान से प्रार्थना की तो भगवान कहने लगे कि – वृंदा मेरी परम भक्त है में उसके साथ छल नहीं कर सकता ।


फिर देवता बोले – भगवान दूसरा कोई उपाय भी तो नहीं है अब आप ही हमारी मदद कर सकते है।

भगवान ने जलंधर का ही रूप रखा और वृंदा के महल में पँहुच गये जैसे ही वृंदा ने अपने पति को देखा, वे तुरंत पूजा मे से उठ गई और उनके चरणों को छू लिए,जैसे ही उनका संकल्प टूटा, युद्ध में देवताओ ने जलंधर को मार दिया और उसका सिर काट कर अलग कर दिया,उनका सिर वृंदा के महल में गिरा जब वृंदा ने देखा कि मेरे पति का सिर तो कटा पडा है तो फिर ये जो मेरे सामने खड़े है ये कौन है?


उन्होंने पूँछा – आप कौन हो जिसका स्पर्श मैने किया, तब भगवान अपने रूप में आ गये पर वे कुछ ना बोल सके,वृंदा सारी बात समझ गई, उन्होंने भगवान को श्राप दे दिया आप पत्थर के हो जाओ, और भगवान तुंरत पत्थर के हो गये।


सभी देवता हाहाकार करने लगे लक्ष्मी जी रोने लगे और प्रार्थना करने लगे यब वृंदा जी ने भगवान को वापस वैसा ही कर दिया और अपने पति का सिर लेकर वे सती हो गयी। उनकी राख से एक पौधा निकला तब भगवान विष्णु जी ने कहा –आज से इनका नाम तुलसी है, और मेरा एक रूप इस पत्थर के रूप में रहेगा जिसे शालिग्राम के नाम से तुलसी जी के साथ ही पूजा जायेगा और मैं


बिना तुलसी जी के भोग स्वीकार नहीं करुंगा। तब से तुलसी जी कि पूजा सभी करने लगे। और तुलसी जी का विवाह शालिग्राम जी के साथ कार्तिक मास में किया जाता है.देव-उठावनी एकादशी के दिन इसे तुलसी विवाह के रूप में मनाया जाता है .....!!


🙏🌺"जय श्री हरि विष्णु"🌺🙏

Wednesday, 28 September 2022

साडेतीन शक्तीपीठे

 #शक्तीच्या_विविध_स्वरूपांचे_महत्त्व_कायम_स्मरणात_राहावे म्हणूनच आपण #नवरात्र उत्सव साजरा करतो...! 🔱🌸🚩


#नवरात्रीचा  हा उत्सव आपल्या सर्वांच्या आयुष्यात सुख, समृद्धी, ऐश्वर्य आणि सुदृढ आरोग्य घेऊन येवो हीच आदीशक्ती चरणी प्रार्थना...! 💐🙏🏻🔱🚩


प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्माचारिणी।

तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम्।।

पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।

सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्।।

नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।

उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्म्रणव महात्मना।।


सर्वांना  #घटस्थापना आणि शारदीय #नवरात्र उत्सवाच्या मनःपूर्वक शुभेच्छा...! 📿🔱🚩


#घटस्थापना निमित्तानं सर्वांना मंगलमय शुभेच्छा...💫

या देवी सर्व भूतेषु शक्तिरुपेण संस्थिता*|💐🕉️


*नमस्तस्यै ! नमस्तस्यै ! नमस्तस्यै नमो नम: ||💐🙏

१) आईसाहेब श्री #तुळजाभवानी माता .💐🕉️



२) आईसाहेब श्री #सप्तश्रूंगी माता .🙏🕉️



३) आईसाहेब श्री #रेणुका माता .🙏🕉️



४) आईसाहेब श्री #महालक्ष्मी माता .🕉️🙏



 #सर्व #शक्ती #पिठ #दर्शन.


श्री #आदिशक्ती #प्रसन्न 💐🙏🕉️


Thursday, 22 September 2022

घटस्थापना मुहूर्त व पुजा विधी

 शारदीय नवरात्र उत्सव 2022

अश्विन शु.प.०१ शके १९४४ शरदऋतू प्रारंभ कसा साजरा करावा ?



घटस्थापना शुभ मुहुर्त:

यंदा सोमवार, 26 सप्टेंबरला घटस्थापना केली जाईल. या दिवसापासून शारदीय नवरात्रोत्सवाचा प्रारंभ होईल

घटस्थापना मुहूर्त - सकाळी 06:11 ते 07:51 पर्यंत. 

घटस्थापना अभिजित मुहूर्त - सकाळी ११:४८ ते दुपारी १२:३६

घटस्थापना पूजा विधी:

 घटस्थापना करताना घट पाटावर किंवा चौरंगावर मांडला जातो. त्यामुळे चौरंग किंवा पाटा खाली रांगोळी काढून त्यावर हळद कुंकू घाला.

 चौरंग/पाटावर लाल वस्त्र अंथरा.

टोपली किंवा पराती मध्ये माती घालून त्यात मिश्र धान्य पेरा. त्या मधोमध कलश ठेवा.

 कलश तयार करताना त्यात हळद-कुंकू, सुपारी, अक्षता, दुर्वा, सव्वा रूपया घाला. कलशाला हळदी कुंकुवाच्या प्रत्येकी 5 बोटं ओढा. कलशामध्ये नागवेलीची किंवा पाच प्रकारच्या पाच विविध पानांच्या मध्ये नारळ ठेवून सजवा.

 कलश परातीत किंवा टोपल्यात ठेवून ते चौरंगावर ठेवा.

 नारळावर बारीक काडी लावून त्यावर फुलं ठेवा.

 कलशाला हळद कुंकु, गंध अक्षता वाहून पूजा करा.

 कलशावर तुम्ही चुनरी देखील चढवू शकता. वेणी, गजरा घाला.

 दिवा-अगरबत्ती ओवाळा. दोन्ही बाजूला तुम्ही समया देखील लावू शकता.

 नवरात्रीमध्ये प्रत्येक दिवशी एक अशी फुलांची माळ वाढवत जा.

 दर दिवशी सकाळ-संध्याकाळ आरती करून पूजा करा.

 परातीत/ टोपल्यात पेरलेल्या धान्यावर दिवसातून दोनदा थोडे थोडे पाणी घाला. नऊ दिवसांत ही धान्य छान वाढतात. त्याच्या वाढीनुसार आपल्या घराण्याची भरभराट होते, असे मानले जाते.

नवरात्रातीत दुर्गेची पूजा ही "निर्मिती शक्तीची" पूजा असते. नवरात्रीतील घटाला सृष्टीचे रुप मानले जाते. या काळात कन्या पूजन करुन देवीच्या रुपाची पूजा केली जाते.

आई तुझाच आशिर्वाद 

जय जगदंबा 🕉👏🏻🔱


Sunday, 18 September 2022

नवरात्र 2022 नवरात्रीचे नऊ रंग

 नवरात्र 2022 नवरात्रीचे नऊ रंग 

सर्व मंगल मांगल्ये।

शिवे सर्वार्थ साधिके ।।

शरण्ये त्र्यंबके गौरी ।

नारायणी नमोस्तुते ।।